Saturday, May 15, 2010

एक बार ईसा मसीह को एक ऐसे व्यक्ति ने अपने घर आमंत्रित किया, जिसे लोग दुर्व्यसनी होने के कारण घृणा करते थे। ईसा खुशी-खुशी उसके घर पहुंचे, प्रेम से भोजन किया और आशीर्वाद देकर लौट आए। ईसा के शिष्यों ने कहा, ‘आपको समाज से बहिष्कृत व्यक्ति के यहां नहीं जाना चाहि था।ईसा ने उत्तर दिया, ‘अच्छे व्यक्ति तो अच्छे हैं ही, उन्हें उपदेश देने की क्या आवश्यकता है? हमें ऐसे ही व्यक्ति के पास जाना चाहिए, जिसे कुछ बातें बताकर अच्छा बनाया जा सके।

अथर्ववेद में कहा गया है, ‘उत देवा, अवहितं देवा उन्नयथा पुनः। उतागश्चक्रुषं वा देव जीवयथा पुनः॥अर्थात, हे दिव्य गुणयुक्त विद्वान पुरुषो, आप नीचे गिरे हुए लोगों को ऊपर उठाओ। हे देवो, अपराध और पाप करने वालों का उद्धार करो। हे विद्वानो, पतित व्यक्तियों को बार-बार अच्छा बनाने का प्रयास करो। हे उदार पुरुषो, जो पाप में प्रवृत्त हैं, उनकी आत्मज्योति को जागृत करो।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे कि घर-बार त्यागकर साधु बने व्यक्ति का परम धर्म है कि वह जिस समाज से प्राप्त भिक्षा से प्राणों की रक्षा करता है, उस समाज के लोगों को भक्ति और सेवा का उपदेश देता रहे। लोगों को प्रेरणा देकर ही साधु समाज के ऋण से उऋण हो सकता है। दुर्व्यसनों में लिप्त लोगों के दुर्गुण छुड़वाना, उन्हें सच्चा मानव बनाने का प्रयास करना साधु का कर्तव्य है। यह कार्य वही संत कर सकता है, जो स्वयं दुर्व्यसनों से मुक्त हो। परमहंस जी स्वयं दोषों से मुक्त थे, इसलिए वह पतितों के आमंत्रण को स्वीकार करने में नहीं हिचकिचाते थे।

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